इशाअत का मतन: तसव्वुरात का सिलसिला किश्त नंबर 38
शेख़ कासिम अलरिमी (रहीमुल्लाह इज़हार-ए-फख्र)
दौरानिया: 03:00 घंटे
तारीख (इशाअत): जमादी उस्सानी 1444 है।
तैयार कर्दा: अल मलाहम फाउंडेशन
बिस्मिल्लाहिर्रहमानीर्रहीम
कुछ अल्फाज़ ऐसे होते हैं जो कुछ हालात में मौजूं नहीं होते लेकिन दूसरे हालात में मौजूं होते हैं। मुझे इसमें तकब्बुर नज़र नहीं आता। ये एक सूरत में जायज़ नहीं है लेकिन दूसरी सूरत में जायज़ है। बाज़ अल्फाज़ में जो बहुत से भाइयों के ख्याल में योमे हुनैन (तकब्बुर) पर मुस्तमिल है, जो ऐसा नहीं है। जब कोई भाई कबूतरों में निकल कर कहता है कि अगर तुम मर्द हो तो बाहर आओ। ख़ुदा की कसम मैं तुम्हें चैलेंज करता हूं, यह मर्दानगी की बात है। दर हकीकत उलमा का कहना है कि किसी शख्स के लिए यह जायज़ नहीं है कि वो अपने आप को दुश्मन पर फेंके, सिवाय इसके कि वो अपने भाइयों के हौसले बुलंद करता है, दुख उठाता है और उनका हौसला बढ़ाता है, चाहे मारा जाए या ना मारा जाए।
कुछ अल्फाज़ में कुछ भाई सोच सकते हैं और कह सकते हैं, खुदा की कसम हम फलां और फलां बात की वजह से हारे हैं। कुछ अल्फाज़ बातिल हैं और कुछ तरक्की देने वाले हैं। इरादा खुद इन्हिसारी नहीं बल्कि अल्लाह तआला पर भरोसा है। इस में और उस में फर्क है। बहुत से भाई आपको कहते हैं कि खुदा की कसम हम इस या उस लफ्ज़ की वजह से हार गए। यह एक ऐसा लफ्ज़ है जिसमें कोई खामी नहीं है लेकिन भाई समझता है कि इसमें तकब्बुर है। वो एक AK47 लेता है तो उसे इसमें कोई तकब्बुर नज़र नहीं आता और वो वही करता है जो अबू दुजाना (रजि.) ने किया। उसने अपनी ताकत पर नहीं बल्कि अपने भाइयों के हौसले बुलंद करने के लिए किया।
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